धर्म का मेला है प्रज्ञालोक, जीवन बदलने का अवसर है यह

 

प्रज्ञालोक से खाली हाथ न लौटें: आचार्य प्रज्ञासागर जी का आत्मिक आह्वान

कोटा। गुरु आस्था परिवार कोटा के तत्वावधान में तथा सकल दिगंबर जैन समाज कोटा के आमंत्रण पर, तपोभूमि प्रणेता, पर्यावरण संरक्षक एवं सुविख्यात जैनाचार्य आचार्य 108 श्री प्रज्ञासागर जी मुनिराज का 37वां चातुर्मास महावीर नगर प्रथम स्थित प्रज्ञालोक में श्रद्धा, भक्ति और आध्यात्मिक गरिमा के साथ संपन्न हो रहा है।
गुरु आस्था परिवार के चेयरमैन यतीश जैन खेडावाला ने बताया कि मंगलवार को आयोजित धार्मिक आयोजन में दीप प्रज्वलन, पाद प्रक्षालन, शास्त्र विराजमान, आरती एवं पूजन जैसे मंगल अवसरों का पुण्य सौभाग्य ज्ञानचंद,लोकेश जैन,सोनू जैन दमदमा परिवार को प्राप्त हुआ और मंगलवार चातुर्मास का सौभाग्य मनीष—निधि जैन कैलाश नगर दिल्ली को प्राप्त हुआ।कार्यक्रम का संचालन अध्यक्ष लोकेश जैन सीसवाली ने किया। महामंत्री नवीन जैन दौराया ने बताया कि गुरूवर से आशीर्वाद लेने अतिरिक्त पुलिस अधिक्षक अंकित जैन,परम सरंक्षक विमल जैन नांता,सकल जैन समाज के मुख्य संयोजक जे के जैन,भाजपा जिला महामंत्री जगदीश जिंदल, मंडल अध्यक्ष संजय निछावन ​ पहुंचे ओर आचार्य 108 श्री प्रज्ञासागर जी मुनिराज को श्रीफल भेंट किया।
आचार्य कुंदकुंद स्वामी की देशना को आधार बनाकर पूज्य गुरुदेव प्रज्ञासागर महाराज ने कहा कि जब भी आप इस धार्मिक मेले में आएं, तो कुछ न कुछ अवश्य लेकर जाएं। जैसे व्यक्ति किसी मेला या बाजार से खाली हाथ नहीं लौटता, वैसे ही प्रज्ञालोक जैसे आध्यात्मिक स्थल से भी आत्मिक लाभ लेकर ही लौटना।
गुरुदेव ने कहा कि यदि कुछ बड़ा संकल्प नहीं कर सकते, तो कम से कम अनावश्यक वस्तुओं के त्याग का नियम लेकर जाएं। यही त्याग एक दिन आत्मिक उन्नयन का आधार बनता है। धर्म केवल मांगने का नहीं, देने और जीने का विषय है।

धर्म को भी चाहिए समय और समर्पण
आचार्य प्रज्ञासागर जी ने वर्तमान समय की धार्मिक उपेक्षा पर चिंता जताते हुए कहा कि — “व्यक्ति मंदिर में केवल एक रुपया और कुछ मिनट देकर करोड़ों की कामना करता है। यदि व्यवसाय में आप केवल कुछ समय लगाएं, तो क्या उससे आजीविका चल सकती है? फिर धर्म से सब कुछ पाने की अपेक्षा, बिना समर्पण के कैसे संभव है?”
उन्होंने स्पष्ट किया कि सुख, शांति और आत्मिक संतोष तभी मिलते हैं जब व्यक्ति धर्म को नियमित समय देता है — सामायिक, ध्यान और स्वाध्याय को नियमित व निरंतर करता है।

धार्मिक चेतना की ज़रूरत
गुरुदेव ने संत कबीर की पंक्ति — “सुख में मन न कीजै, दुख में कीजै पुकार” — उद्धृत करते हुए कहा कि केवल संकट में धर्म की शरण लेने की प्रवृत्ति उचित नहीं। धर्म का बीजारोपण तभी फल देता है जब व्यक्ति उसे जीवन में निरंतर सींचे।

मार्ग और मंज़िल एक-दूसरे के पूरक
अपने संदेश के अंतिम भाग में आचार्यश्री ने जीवन के उद्देश्य और साधना की दिशा पर प्रकाश डालते हुए कहा — “केवल मंज़िल का जाप करने से कुछ नहीं मिलेगा। मंज़िल तभी मिलेगी जब व्यक्ति मार्ग पर चले। यदि मंज़िल का ज्ञान नहीं है, तो आप किसी भी रास्ते पर भटक सकते हैं। और यदि मंज़िल ज्ञात है, फिर भी यदि आप चलते नहीं, तो भी लक्ष्य सधने वाला नहीं।”उन्होंने ज़ोर देते हुए कहा कि मंज़िल और मार्ग एक-दूसरे के पूरक हैं, और इसी समन्वय में ही जीवन की सफलता निहित है।

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