दान, संयम और सेवा को बताया जीवन की सच्ची संपदा— गुरुदेव प्रज्ञासागर जी महाराज

“संत बनने का विचार आज करें, मुनि बनने का मार्ग स्वतः प्रशस्त होगा”

कोटा। गुरु आस्था परिवार कोटा के तत्वावधान में तथा सकल दिगंबर जैन समाज कोटा के आमंत्रण पर, तपोभूमि प्रणेता, पर्यावरण संरक्षक एवं सुविख्यात जैनाचार्य आचार्य 108 श्री प्रज्ञासागर जी मुनिराज का 37वां चातुर्मास महावीर नगर प्रथम स्थित प्रज्ञालोक में श्रद्धा, भक्ति और आध्यात्मिक गरिमा के साथ संपन्न हो रहा है।
प्रवक्ता मनोज जैन आदिनाथ ने बताया कि चातुर्मास व दीप प्रज्वलन, पाद प्रक्षालन, शास्त्र विराजमान, आरती एवं पूजन जैसे मंगल अवसरों का पुण्य सौभाग्य रमेश चंद्र—मीना,मंयक—शालू,यश—आकांशा समस्त वर्धमान बायोसीड्स परिवार,कुवांडा वाले रहे। कार्यक्रम का संचालन अध्यक्ष लोकेश जैन सीसवाली ने किया। महामंत्री नवीन जैन दौराया ने बताया कि गुरूवर से आशीर्वाद लेने पार्षद गोपाल राम मण्डा व पार्षद योगेश आहलूवालिया, सकल समाज अध्यक्ष प्रकाश बज,सरंक्षक विमल जैन नांता आदि भक्तों ने आचार्य 108 श्री प्रज्ञासागर जी मुनिराज को श्रीफल भेंट किया।
फेडरेशन के अतिरिक्त महासचिव जे के जैन व जैन सोशल ग्रुप अनुभव के अध्यक्ष राजेन्द्र बज सहित 31 दम्पति सदस्यों अष्ट द्रव्यों से गुरूदेव का पूजन किया।
पर्यावरण संरक्षक एवं तपोमूर्ति आचार्य श्री 108 प्रज्ञासागर जी मुनिराज ने अपने प्रवचन में संतत्व की ओर अग्रसर होने के लिए श्रद्धालुओं को प्रेरित करते हुए कहा कि— “यदि आप इस जन्म में मुनि बनने का भाव बनाएंगे, तो अगला जन्म आपके वैराग्य मार्ग पर अग्रसर होने की नींव रखेगा।” उन्होंने समझाया कि जो व्यक्ति मन के वशीभूत होता है, मन उससे नादानी और शैतानी करवाता है, जबकि वैरागी व्यक्ति मन को अपने नियंत्रण में रखता है।गुरुदेव ने राजा भरत और भगवान ऋषभदेव की एक मार्मिक कथा सुनाई। उन्होंने बताया कि राजा भरत के 923 पुत्र जन्म से मूक थे। जब उन्होंने भगवान ऋषभदेव से इसका कारण पूछा तो उत्तर मिला— “वे पुत्र मूक नहीं, बल्कि जीवनभर मौन व्रत धारण करने वाले संत हैं। उन्होंने आठ वर्ष की आयु में दीक्षा लेकर मोक्ष की ओर यात्रा आरंभ कर दी है।” इस प्रसंग के माध्यम से गुरुदेव ने उपस्थित श्रद्धालुओं से आह्वान किया कि वे प्रत्येक दिन मुनि बनने का संकल्प लें, तभी अगली जन्मों में उसका फल प्राप्त हो सकेगा।

छोटों के प्रति बड़ा मन रखें
गुरुदेव ने सामाजिक व्यवहार पर प्रकाश डालते हुए कहा कि लोग वातानुकूलित होटलों में कार्यरत वेटर को 100–200 रुपये टिप में दे आते हैं, लेकिन सड़क पर मेहनत करने वाले रिक्शावालों या सब्जी विक्रेताओं से 5–10 रुपये के लिए मोलभाव करते हैं। उन्होंने इस मानसिकता को बदलने की अपील की।

पाप का प्रायश्चित है दान
प्रज्ञासागर महाराज ने दान की महत्ता पर बल देते हुए कहा कि— “कमाई के चक्कर में कई बार मनुष्य अनजाने में पाप भी कर बैठता है। ऐसे पापों का प्रायश्चित ‘दान’ है।” उन्होंने समझाया कि “दान से पाप का ब्याज चुकता होता है, जबकि त्याग से मूल समाप्त होता है।”
गुरुदेव ने लोगों को दान, शील, पूजा और उपवास जैसे सत्कर्मों की ओर प्रेरित किया और बताया कि ये साधन मन को शांत और इंद्रियों को संयमित करते हैं। उन्होंने कहा—“जिसके पास धन है, वह धर्म प्रभावना में आर्थिक सहयोग दे। जिसके पास समय/मन है, वह मन लगाकर पूजा-पाठ करे। और यदि यह भी संभव न हो, तो शील-व्रत एवं ब्रह्मचर्य का पालन करें। यदि कुछ भी न कर पाएं, तो उपवास करें — उपवास आत्मशुद्धि और उपासना का सशक्त माध्यम है।”गुरुदेव के इन जीवन निर्माणकारी प्रवचनों ने उपस्थित श्रद्धालुओं को आत्ममंथन एवं साधना की दिशा में प्रोत्साहित किया।इस अवसर गुरू पूजन व आरती में गुरू आस्था परिवार चैयरमेन यतीश जैन खेडावाला,अध्यक्ष लोकेश जैन,महामंत्री नवीन जैन,कोषाध्यक्ष अजय जैन,शैलेन्द्र जैन शैलू,अध्यक्ष,गुलाबचंद लुहाड़िया,मिलाप अजमेरा, योगेश सिंघम,सौरभ जैन,अजय मेहरू,अजय खटकिडा, लोकेश दमदमा सहित सैकडो लोग उपस्थित रहे।

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