वैराग्य की वह सुबह… जब विवेक बने प्रज्ञासागर

आचार्य श्री प्रज्ञासागर जी महाराज के वैराग्य जीवन का अद्वितीय प्रसंग

डिजिटल डेक्स । राहुल पारीक

 

 हर आत्मा के जीवन में वह क्षण कभी न कभी आता है, जब भीतर से कोई पुकार उठती है—“अब लौट चलें उस ओर, जहाँ आत्मा की शांति है, जहाँ सत्य का आलोक है।”पर यह वैराग्य का भाव सबको नसीब नहीं होता। संसार में करोड़ों लोग जन्म लेते हैं, पर वैराग्य के पथ पर चलने वाले चंद ही होते हैं—और उन्हीं में से एक हैं तपोभूमि प्रणेता, आचार्य श्री 108 प्रज्ञासागर जी महाराज।

वैराग्य की शुरुआत
आचार्य श्री का जन्म 1 सितंबर 1972 को मध्यप्रदेश के पिंडरई, जिला मण्डला में विवेक कुमार जैन के रूप में हुआ। सातवीं तक की लौकिक शिक्षा के बाद, 10 अप्रैल 1985 को मात्र 12 वर्ष की आयु में उन्होंने गृह त्याग कर वैराग्य की राह चुन ली। उनका हृदय वैराग्य की अग्नि से तभी प्रज्वलित हुआ जब उन्होंने छिंदवाड़ा नगर में आचार्य पुष्पदंतसागर जी महाराज के प्रथम दर्शन किए। उसी क्षण बालक विवेक के अंतर में एक अनोखी तरंग उठी—“मैं इनके जैसा बनना चाहता हूँ।” उन्होंने तुरंत अपने भाव गुरुदेव के चरणों में निवेदित कर दिए।गुरुदेव ने सहज कहा: “माता-पिता की स्वीकृति लाओ।” पिता गाँव में थे, माँ साथ थी। विवेक ने माँ को गुरुदेव के पास लाया। माँ ने कहा, “यदि गुरुदेव के पास रहना चाहता है, तो रह लो। जब तक मन लगे साथ रहना, न लगे तो लौट आना।” इस सरल वचन में वह दृढ़ता थी जिसने एक महात्मा को जन्म दिया।

धन्य वो माँ, धन्य वो पिता
बालक विवेक के माता-पिता—श्रीमती सरस्वती देवी और श्री वीरचन्द जी जैन—ने न केवल पुत्र का संन्यास स्वीकारा, बल्कि पूरे परिवार को साधु-मार्ग पर चलते देखने का स्वप्न देखा। पिता ने कहा, “साधु बनने गया है, नाकु (निकम्मा) बनने नहीं। यदि हमारी आठ संतानों में से एक भी साधु बने, तो यह हमारा पुण्य है।”इसी भाव से 18 अप्रैल 1989 को महावीर जयंती के दिन, केवल 17 वर्ष की आयु में बालक विवेक ने मुनि दीक्षा परतापुर जिला बॉसवाडा राजस्थान में ली और बन गए मुनि प्रज्ञासागर।

19 वर्षों बाद माँ से पुनर्मिलन
गृह त्याग के बाद 19 वर्षों तक उन्होंने कभी अपने परिवार से संपर्क नहीं किया। जब मुनि प्रज्ञासागर बनकर वे वापस अपने गाँव लौटे, तो माँ ने उन्हें देख कर कहा, “यह अंतिम दर्शन है।” और वाकई उसी वर्ष उन्होंने अंतिम सांस ली।
वे कहते हैं, “जब मैं गृहस्थ था, तब मेरे पिता वीर थे और अब जब मैं  मुनि हूँ, तब मेरे पिता महावीर हैं। माँ तब सरस्वती थीं, अब भी वही सरस्वती मेरे पथ की प्रेरणा हैं।”

कठिन दिखने वाला पथ, बन गया सहज साधना का मार्ग
वैराग्य कठिन दिखता है, पर आचार्य श्री कहते हैं—“जिस दिन इस मार्ग पर चलना शुरू कर दो, यह मार्ग सबसे सरल लगने लगता है। यहाँ कोई तनाव नहीं, कोई मतभेद नहीं, कोई झंझट नहीं। यही आत्मा की शांति का मार्ग है।”

एक प्रेरणा, जो हर आत्मा को झकझोरती है 
आचार्य श्री प्रज्ञासागर जी का जीवन इस बात का प्रतीक है कि वैराग्य केवल संन्यास नहीं, बल्कि आत्मा की यात्रा है—बचपन से ब्रह्मचर्य तक, लौकिक से आध्यात्मिक तक।
जो अपने भीतर की आवाज़ को सुन पाते हैं, वही जीवन की ऊँचाईयों को छूते हैं और आचार्य श्री ने यह सिद्ध कर दिखाया।

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